शिवपुरी। पूरे प्रदेश की तरह शिवपुरी जिले में भी बड़ा हुआ मतदान समस्या बना हुआ है। अधिक मतदान का किसे फायदा होगा यह स्पष्ट नहीं है। हालांकि कांग्रेस और भाजपा दोनों दलों ने अधिक मतदान को अपने लिए लाभदायक बताया है। यह भी स्पष्ट नहीं हो पा रहा है कि चुनाव में एंटीइनकम्वंशी फैक्टर का प्रभाव रहा या प्रोइनकम्वंशी फैक्टर का। पूरे जिले में कहीं-कहीं सत्ता विरोधी रूझान तो कहीं भाजपा सरकार की जनकल्याणकारी योजनाओं का प्रभाव देखने को मिला। व्यापारी और किसान ने सत्ता के विरूद्ध रूख दर्शाते हुए कांग्रेस के पक्ष में बड़ी संख्या में मतदान किया वहीं निम्न वर्ग की सरकारी योजनाओं से लाभान्वित बस्तियों में भाजपा का प्रभाव देखने को मिला। इन अस्पष्ट रूझान से यह कहना मुश्किल जान पड़ रहा है कि 11 दिसम्बर को जिले की राजनैतिक तस्वीर क्या होगी। क्या कांग्रेस और भाजपा अपनी-अपनी सीटों को बचाने के साथ-साथ इसमें कुछ इजाफा कर पाएंगे अथवा नहीं।
पिछले विधानसभा चुनाव में शिवपुरी जिले में कांग्रेस ने कोलारस, करैरा और पिछोर विधानसभा सीटों पर विजयश्री हासिल की थी जबकि भाजपा ने शिवपुरी और पोहरी सीट पर कब्जा किया था। भाजपा ने जहां 2013 में जीते अपने दोनों विधायकों यशोधरा राजे सिंधिया और प्रहलाद भारती को टिकट दिया वहीं कांग्रेस ने केपी सिंह तथा उपचुनाव में जीते महेन्द्र यादव को पुन: उम्मीद्वार बनाया एवं करैरा विधायिका शकुन्तला खटीक का टिकट काटकर जसवंत जाटव को टिकट दिया। कुल मिलाकर पांच विधायकों में से सिर्फ एक विधायक का टिकट कांग्रेस ने काटने की हिम्मत दिखाई और इसका फायदा भी चुनाव में कांग्रेस को मिलता हुआ दिखा। इससे कांग्रेस एंटीइनकम्वंशी फैक्टर के प्रभाव से मुक्त नजर आई और वह करैरा में मुकाबले में मजबूती से बनी रही। शिवपुरी, पोहरी, पिछोर और कोलारस में विधायकों को पुन: दोहराया गया और इस कारण इन विधानसभा क्षेत्रों में एंटीइनकम्वंशी फैक्टर का प्रभाव देखने को मिला। पिछोर विधायक केपी सिंह जो कि 1993 से लगातार जीत रहे और एंटीइनकम्वंशी फैक्टर के कारण ही वह इस चुनाव में संकट में घिरे नजर आ रहे हैं। शिवपुरी में यशोधरा राजे सिंधिया को वैश्य, ब्राह्मण और प्रबुद्ध वर्ग की नाराजगी का सामना करना पड़ा, लेकिन गरीब बस्तियों में उन्हें अच्छा खासा समर्थन हासिल हुआ। शिवराज फैक्टर और मोदी फैक्टर के कारण उनकी स्थिति मजबूत बनी। ग्रामीण क्षेत्रों में किसानों की नाराजगी भाजपा पर भारी रही वहीं कांग्रेस प्रत्याशी सिद्धार्थ लढ़ा को युवा और नए प्रत्याशी होने का लाभ मिला। इन तमाम मिले जुले कारणों से शिवपुरी सीट पर दोनों दलों के अपने-अपने दावे के बावजूद असमंजस का वातावरण बना हुआ है, लेकिन यदि प्रदेश और केन्द्र की सरकारी योजनाओं का सकारात्मक प्रभाव पड़ा तो भाजपा इस सीट को बड़े मार्जिन से जीत सकती है। पोहरी विधानसभा क्षेत्र में दो बार से चुनाव जीत रहे भाजपा विधायक प्रहलाद भारती ने अपने कार्यकाल में बहुत सारे विकास कार्य कराए हैं उनकी छवि भी अच्छी मानी जाती है, लेकिन इसके बाद भी वह संकट में फंसे हुए हैं तो इसके दो कारण है एक तो सत्ता विरोधी रूझान (एंटीइनकम्वंशी फैक्टर) तथा दूसरा कांग्रेस द्वारा उनकी ही जाति के धाकड़ उम्मीद्वार सुरेश राठखेड़ा को खड़ा कर देना है। इससे उनके समक्ष एक समस्या तो यह हुई कि 45000 हजार धाकड़ मतदाताओं का उनके अलावा कांग्रेस प्र्रत्याशी सुरेश राठखेड़ा के पक्ष में धु्रवीकरण हुआ और दूसरा विधानसभा क्षेत्र में धाकड़ बर्सेस अन्य जातियों का समीकरण बनने से उन्हें परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। ठीक यही स्थिति कांग्रेस प्रत्याशी सुरेश राठखेड़ा की है। उनकी मुश्किलें बसपा प्रत्याशी कैलाश कुशवाह ने और बढ़ा दी हैं। इन कारणों से पोहरी का परिदृश्य पूरी तरह से अस्पष्ट बना हुआ है। ऐसी स्थिति में कौन सा फैक्टर प्रभावी होगा और कौन विजयश्री को वरण करेगा? यह कहने की स्थिति में कोई नहीं है। करैरा विधानसभा क्षेत्र में कांग्रेस ने एंटीइनकम्वंशी फैक्टर को नेस्तनाबूत करने के लिए वर्तमान विधायक को बदलकर जसवंत जाटव को टिकट दिया, लेकिन बसपा ने भी जाटव उम्मीद्वार प्रागीलाल जाटव की उम्मीद्वारी घोषित कर दी। कांग्रेस और बसपा के परम्परागत मतदाता दलित वोटर हैं और दोनों प्रत्याशियों में जिस तरह से एक-एक मत के लिए संघर्ष हुआ उससे अनायास ही तीसरे स्थान पर चल रहे भाजपा प्रत्याशी राजकुमार खटीक को मुकाबले में वापस ला दिया, परंतु राजकुमार खटीक की दिक्कत को बढ़ाने का काम भाजपा के बागी उम्मीद्वार रमेश खटीक ने किया। रमेश खटीक ने यदि 10 से 15 हजार मत प्राप्त कर लिए तो करैरा में जीत की लड़ाई कांग्रेस उम्मीद्वार जसवंत जाटव और बसपा उम्मीद्वार प्रागीलाल के बीच सीमित हो जाएगी अन्यथा करैरा में डार्क हॉर्स राजकुमार खटीक भी साबित हो सकते हैं। कुल मिलाकर इस विधानसभा क्षेत्र में भी समीकरण इतने गड़बड़ हैं कि किसके प्रभाव से त्रिकोणीय संघर्ष में कौन जीत जाए यह कहने की स्थिति में कोई नहीं है। कोलारस विधानसभा क्षेत्र में छह माह पहले कांग्रेस विधायक महेन्द्र यादव उपचुनाव में जीत कर आए और छह माह में ही उनके खिलाफ जबर्दस्त एंटीइनकम्वंशी हो गई। पार्टी के भीतर भी उनका विरोध शुरू हो गया, क्योंकि राजनीति में वह पैराशूट की तरह उतरे थे। भाजपा ने यहां कांग्रेस से आए पूर्व विधायक वीरेन्द्र रघुवंशी को मैदान में उतारा। श्री रघुवंशी की जमीनी पकड़ है, परंतु भाजपा के एक बड़े वर्ग ने उनकी जबर्दस्त मुखालफत की। कोलारस के कई बड़े नेता तो चुनाव प्रचार के दौरान एक दिन भी क्षेत्र में नहीं गए। सिंधिया ने कोलारस के गढ़ को जीतने में पूरी ताकत लगाई और उन्होंने सर्वाधिक तीन आमसभाएं इस क्षेत्र में कीं। क्योंकि श्री रघुवंशी की छवि कट्टर महल विरोधी नेता के रूप में हैं और चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने सीधे-सीधे सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया के खिलाफ मोर्चा खोला था। इस कारण कोलारस में भी जीत की साफ तस्वीर उभरकर सामने नहीं आ रही है। पिछोर विधानसभा क्षेत्र में साफतौर पर एंटीइनकम्वंशी फैक्टर को प्रभाव देखने को मिला। यहां भाजपा की सभाओं में काफी जनसैलाब उमड़ा जबकि पिछोर से कांग्रेस विधायक केपी सिंह पांच बार से चुनाव जीत रहे हैं, लेकिन इस बार वह जीत पाएंगे या नहीं, यह कहने की स्थिति में कोई नहीं है। कुल मिलाकर इस चुनाव में मतदान के बाद भी जिस तरह का कुहांसा छाया हुआ है उससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ।







